जीने कब देतीं हैं मुझको





जीने कब देतीं हैं मुझको,      भीड़ भरी तनहाइयाँ

साथ यहाँ परछाई मेरी          और वहाँ परछाइयाँ


उथली-उथली बात करें सब,    कोई* गहरी बात नहीं

इतनी गहरी नदिया हैं तो,         नापें क्या गहराइयाँ


उड़ने को अकुलाईं हैं       भौंरों की* कैसे गूंज सुनें,

मादक मोहक चटक रँगीली,  शहरी सारी तितलियाँ


जितनी दरकीं हैं* दीवारें,        उनका बंदोबस्त करें   

वहाँ पे* रोशन दान लगा दो, और लगा दो खिड़कियाँ


औषधि केवल वही कारगर,सहज सरल जो*मिल जाये 

सदा घरेलू वैद्य रहे,          दादा दादी औ नानियाँ।। 


                          🙏 *सुरेश पैगवार* 🙏

                                      जाँजगीर

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